Marital Rape: केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मैरिटल रेप (Marital Rape) को अपराध घोषित करने की याचिकाओं का विरोध करते हुए इसे एक कानूनी से ज्यादा सामाजिक मुद्दा बताया है। सरकार ने कहा कि विवाह के भीतर यौन संबंधों पर विचार करते समय मैरिटल रेप को अपराध बनाना उचित नहीं है, क्योंकि इसके लिए पहले से वैकल्पिक दंडात्मक उपाय मौजूद हैं। केंद्र ने यह भी तर्क दिया कि मैरिटल रेप को अपराध के दायरे में लाने का मुद्दा सीधे तौर पर समाज पर प्रभाव डालता है, और इस पर किसी भी निर्णय से पहले सभी राज्यों और हितधारकों से व्यापक परामर्श की आवश्यकता है। सरकार ने यह रुख सुप्रीम कोर्ट में हलफनामे के माध्यम से रखा, जिसमें उसने मौजूदा कानूनों का समर्थन किया, जो पति और पत्नी के (Marital Rape) बीच यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखते हैं।
केंद्र सरकार का तर्क: कानूनी से अधिक सामाजिक मुद्दा
सरकार ने अपनी दलील में कहा कि विवाह की संस्था का समाज पर गहरा असर पड़ता है और यह केवल कानूनी मुद्दा नहीं है। केंद्र ने इस बात पर जोर दिया कि बिना सभी राज्यों और संबंधित पक्षों की राय को ध्यान में रखे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं होगा। इस विषय पर केंद्र का मानना है कि विवाह के भीतर होने वाले यौन संबंध और विवाह के बाहर होने वाले यौन संबंधों में स्पष्ट अंतर है और इन दोनों को एक ही नजरिए से नहीं देखा जा सकता।
#Breaking | Centre opposed pleas seeking criminalisation of #MaritalRape, stating that institution of marriage must be dealt with on a diff footing vis-a-vis other situations where women may face sexual violence. @boomlive_in pic.twitter.com/gYgJ70fCLY
— Ritika Jain (@riotsjain) October 3, 2024
केंद्र ने यह भी कहा कि भारतीय समाज में विवाह एक विशेष संस्था है, और इसके नियम और अपेक्षाएं उस पर आधारित हैं। सरकार का कहना है कि इस संदर्भ में मैरिटल रेप को अपराध घोषित करना समाज के मूलभूत ढांचे को प्रभावित कर सकता है।
मौजूदा दंडात्मक उपायों पर केंद्र की दलील
हलफनामे में केंद्र ने स्पष्ट किया कि (Marital Rape) से निपटने के लिए मौजूदा कानून पहले से मौजूद हैं, जो विवाह के भीतर यौन संबंधों में सहमति के उल्लंघन को संभालने के लिए पर्याप्त हैं। इसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए का जिक्र किया गया, जो पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा पत्नी के प्रति क्रूरता को अपराध मानती है। इसके अलावा, घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों का भी उल्लेख किया गया, जैसे घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, जो महिलाओं की शील के खिलाफ किए गए कृत्यों को दंडित करता है।
केंद्र ने कहा कि विवाह के भीतर उत्पन्न यौन सहमति के मुद्दों को विशेष रूप से इस दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए कि यह विवाह संस्था के तहत हो रहा है, और इसे विवाह से बाहर के बलात्कार मामलों के समान नहीं माना जा सकता। सरकार ने स्पष्ट किया कि बलात्कार विरोधी कानूनों के तहत दंड असंगत हो सकता है और इस मामले में एक संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है।
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सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं का विरोध
केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया कि मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में लाने से विवाह संस्था पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है। याचिकाकर्ताओं द्वारा विवाह को केवल एक कानूनी संस्था मानने के दृष्टिकोण को केंद्र ने गलत ठहराया। सरकार ने यह भी कहा कि विवाह केवल एक कानूनी संबंध नहीं है, बल्कि इसका एक सामाजिक और भावनात्मक पहलू भी है, जिसमें यौन संबंध सिर्फ एक पहलू है।
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि वह इस मुद्दे पर हस्तक्षेप न करे, क्योंकि यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। सरकार ने यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का पालन किया गया है, क्योंकि विवाह के भीतर और विवाह के बाहर के यौन संबंध समान नहीं हो सकते। केंद्र का मानना है कि विवाह के भीतर यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में लाने के लिए पहले से ही पर्याप्त कानूनी प्रावधान मौजूद हैं।
वैवाहिक सहमति: कानूनी और सामाजिक पहलू
केंद्र सरकार ने (Marital Rape) अपने हलफनामे में कहा कि विवाह में यौन संबंध बनाने की सहमति समाप्त नहीं होती, लेकिन इसे एक सामाजिक और वैधानिक रूप से अलग संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसके अलावा, सरकार ने कहा कि विवाहित महिला की सहमति की रक्षा के लिए पहले से ही कानून बनाए गए हैं, और इन्हें और अधिक कठोर बनाने की आवश्यकता नहीं है। हलफनामे में यह भी तर्क दिया गया कि विवाह के भीतर के यौन संबंधों को विवाह के बाहर के यौन संबंधों से अलग तरीके से देखा जाना चाहिए, क्योंकि दोनों की परिस्थितियां अलग होती हैं।
Marital Rape: केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मैरिटल रेप (Marital Rape) को अपराध घोषित करने की याचिकाओं का विरोध करते हुए इसे एक कानूनी से ज्यादा सामाजिक मुद्दा बताया है। सरकार ने कहा कि विवाह के भीतर यौन संबंधों पर विचार करते समय मैरिटल रेप को अपराध बनाना उचित नहीं है, क्योंकि इसके लिए पहले से वैकल्पिक दंडात्मक उपाय मौजूद हैं। केंद्र ने यह भी तर्क दिया कि मैरिटल रेप को अपराध के दायरे में लाने का मुद्दा सीधे तौर पर समाज पर प्रभाव डालता है, और इस पर किसी भी निर्णय से पहले सभी राज्यों और हितधारकों से व्यापक परामर्श की आवश्यकता है। सरकार ने यह रुख सुप्रीम कोर्ट में हलफनामे के माध्यम से रखा, जिसमें उसने मौजूदा कानूनों का समर्थन किया, जो पति और पत्नी के (Marital Rape) बीच यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखते हैं।
केंद्र सरकार का तर्क: कानूनी से अधिक सामाजिक मुद्दा
सरकार ने अपनी दलील में कहा कि विवाह की संस्था का समाज पर गहरा असर पड़ता है और यह केवल कानूनी मुद्दा नहीं है। केंद्र ने इस बात पर जोर दिया कि बिना सभी राज्यों और संबंधित पक्षों की राय को ध्यान में रखे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं होगा। इस विषय पर केंद्र का मानना है कि विवाह के भीतर होने वाले यौन संबंध और विवाह के बाहर होने वाले यौन संबंधों में स्पष्ट अंतर है और इन दोनों को एक ही नजरिए से नहीं देखा जा सकता।
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केंद्र ने यह भी कहा कि भारतीय समाज में विवाह एक विशेष संस्था है, और इसके नियम और अपेक्षाएं उस पर आधारित हैं। सरकार का कहना है कि इस संदर्भ में मैरिटल रेप को अपराध घोषित करना समाज के मूलभूत ढांचे को प्रभावित कर सकता है।
मौजूदा दंडात्मक उपायों पर केंद्र की दलील
हलफनामे में केंद्र ने स्पष्ट किया कि (Marital Rape) से निपटने के लिए मौजूदा कानून पहले से मौजूद हैं, जो विवाह के भीतर यौन संबंधों में सहमति के उल्लंघन को संभालने के लिए पर्याप्त हैं। इसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए का जिक्र किया गया, जो पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा पत्नी के प्रति क्रूरता को अपराध मानती है। इसके अलावा, घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों का भी उल्लेख किया गया, जैसे घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, जो महिलाओं की शील के खिलाफ किए गए कृत्यों को दंडित करता है।
केंद्र ने कहा कि विवाह के भीतर उत्पन्न यौन सहमति के मुद्दों को विशेष रूप से इस दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए कि यह विवाह संस्था के तहत हो रहा है, और इसे विवाह से बाहर के बलात्कार मामलों के समान नहीं माना जा सकता। सरकार ने स्पष्ट किया कि बलात्कार विरोधी कानूनों के तहत दंड असंगत हो सकता है और इस मामले में एक संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है।
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सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं का विरोध
केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया कि मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में लाने से विवाह संस्था पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है। याचिकाकर्ताओं द्वारा विवाह को केवल एक कानूनी संस्था मानने के दृष्टिकोण को केंद्र ने गलत ठहराया। सरकार ने यह भी कहा कि विवाह केवल एक कानूनी संबंध नहीं है, बल्कि इसका एक सामाजिक और भावनात्मक पहलू भी है, जिसमें यौन संबंध सिर्फ एक पहलू है।
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि वह इस मुद्दे पर हस्तक्षेप न करे, क्योंकि यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। सरकार ने यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का पालन किया गया है, क्योंकि विवाह के भीतर और विवाह के बाहर के यौन संबंध समान नहीं हो सकते। केंद्र का मानना है कि विवाह के भीतर यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में लाने के लिए पहले से ही पर्याप्त कानूनी प्रावधान मौजूद हैं।
वैवाहिक सहमति: कानूनी और सामाजिक पहलू
केंद्र सरकार ने (Marital Rape) अपने हलफनामे में कहा कि विवाह में यौन संबंध बनाने की सहमति समाप्त नहीं होती, लेकिन इसे एक सामाजिक और वैधानिक रूप से अलग संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसके अलावा, सरकार ने कहा कि विवाहित महिला की सहमति की रक्षा के लिए पहले से ही कानून बनाए गए हैं, और इन्हें और अधिक कठोर बनाने की आवश्यकता नहीं है। हलफनामे में यह भी तर्क दिया गया कि विवाह के भीतर के यौन संबंधों को विवाह के बाहर के यौन संबंधों से अलग तरीके से देखा जाना चाहिए, क्योंकि दोनों की परिस्थितियां अलग होती हैं।