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‘अजब-गजब’ की है कानपुर के घंटाघारों की कहानी, अंग्रेजों के ‘टन-टन’ की आवाज से दौड़ पड़ता था शहर

अंग्रेजों ने कानपुर को आद्यौगिक शहर को तौर पर बसाया था, श्रमिकों के लिए घंटाघरों का निर्माण करवाया और घड़ियां लगवाई थीं।

by Vinod
March 17, 2025
in Latest News, TOP NEWS, उत्तर प्रदेश, कानपुर
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कानपुर। गंगा के किनारे बसा कानपुर शहर को कभी ’मैनचेस्टर ऑफ़ द ईस्ट’ कहा जाता था। अंग्रेज सरकार ने 24 मार्च 1803 में कानपुर को जिला घोषित किया। साथ ही कानपुर को आद्यौगित नगरी के तौर पर विकसित किया। कई मिलें खुलवाई, इनमें लाल इमली, म्योर मिल, एल्गिन मिल, कानपुर कॉटन मिल और अथर्टन मिल काफ़ी प्रसिद्ध हुईं। तब कानपुर को मजदूरों का शहर भी कहा जाता था। उस वक्त घड़ी रखना हर व्यक्ति के बस की बात नहीं थी। ऐसे में अंग्रेजों ने मिलों और मुख्य बाजारों में श्रमिकों को यह सुविधा देने के लिए घंटाघर बनवाए थे। घनी आबादी में बने इन घंटाघरों की टिक-टिक पर श्रमिक तो चलते ही थे, बल्कि पूरे इलाके का टाइम टेबल सेट होता था। टन-टन की आवाज से पूरा शहर चल पड़ा करता था।

तब अंग्रेजों ने घंटाघरों का निर्माण करवाया

गंगा के किनारे बसा कानपुर का इतिहास सैकड़ों वर्ष प्राचीन है। शहर से 18 किमी की दूरी पर बिठूर कस्बा है। यहीं पर मां सीता ने कई बरस बिताए थे। लव-कुश का जन्म भी बिठूर में हुआ था। बिठूर से ही 1857 की क्रांति का बिगुल फूंकर गया था। अंग्रेजों को भी कानपुर बहुत पसंद था। ऐसे में उन्होंने इस शहर को आद्यौगिक नगरी के तौर पर विकसित किया। बस स्ट्रैंड, रेलवे स्ट्रैंड, सीएसए, एचबीटीयू, हैलट, उर्सला शर्करा समेत कई संस्थानों की नींव रखीं। मिलों का जाल बिछाया, जिसमें हजारों श्रमिक काम करते थे। उस वक्त हर व्यक्ति के पास घड़ी नहीं हुआ करती थी। तब अंग्रेजों ने घंटाघरों का निर्माण करवाया और उनमें घड़ियां लगवाई। जिनकी टन-टन से श्रमिक को समय के बारे में जानकारी हो जाया करती थी। चावल मंडी, कलक्टरगंज, हटिया आदि इलाकों की दुकानों में काम करने वाले कर्मचारी टन-टन गिन अपनी दिनचर्या तय करते थे। घनी दोपहरी हो, काले बदलों का डेरा या सर्दी में छोटा होता दिन। घंटाघर की टन सही वक्त बतलाता था।

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1880 में घड़ी लगवाई

अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान हर व्यक्ति के पास घड़ी नहीं हुआ करती थी। सबसे ज्यादा समस्या श्रमिकों को उठानी पड़ती थी। इसके चलते लाल इमली ऊलेन मिल के प्रबंधक गौविन जोंस ने मिल के पूर्वी कोने पर ऊंची मीनार बनवाकर सन 1880 में घड़ी लगवाई थी। इस घड़ी की सुई इंग्लैंड से मंगवाई गई थी। शहर का यह पहला क्लॉक टावर था। इसे बनाने में करीब दो लाख रुपये का खर्च आया था। छह महीने में बनकर तैयार हुए इस टावर को देखने दूर-दूर से लोग आते थे। लाल इमली पर ब्रिटिश सेना के सिपाहियों के लिए कंबल बनाए जाते थे। फिर दूसरे कपड़े भी लाल इमली में बनने लगे। यहां काम करने वाले मजदूरों को समय प्रबंधन को लेकर समस्या हुई तो मिल प्रबंधक गैविन एस जोन्स ने मिल के पूर्वी कोने पर ऊंची मीनार बनवाकर वर्ष 1880 में घड़ी लगवाई थी। शहर का यह पहला ’क्लाक टावर’ था।

इसका निर्माण वर्ष 1911 में

शहर में धीरे-धीरे मिलों और मजदूरों की संख्या बढ़ी। लाल इमली मिल में निर्मित टावर की आवाज दूर तक सुनने में परेशानी हुई। इस पर अंग्रेज अधिकारियों के सामने मजदूरों व मिल प्रबंधकों ने बात रखी। तय हुआ कि दूसरा टावर ऐसी जगह बनाया जाए, जहां से मोहल्लों तक भी आवाज पहुंच सके। इस पर फूलबाग स्थित किंग एडवर्ड मेमोरियल (केईएम) हाल में दूसरा टावर स्थापित किया गया। इसका निर्माण वर्ष 1911 में अंग्रेज अधिकारी बिलक्रिस्ट ने 30 हजार रुपये का सहयोग देकर कराया था। 11 जून, 1912 को जैमन कोबोल ने इस घंटाघर का शुभारंभ किया था।

1929 को इसका शुभारंभ

लाल इमली और फूलबाग के क्लाक टावरों के शुरू होने से आसपास के तमाम मोहल्लों व मिलों के मजदूरों को मदद मिलने लगी। इतिहासकार बताते हैं, इसके बाद तीसरा टावर कानपुर कोतवाली के भवन में स्थापित किया गया, क्योंकि उस समय तक इधर भी आबादी तेजी से बढ़ी। दूसरा टावर बनने के 13 साल बाद जनरल राबर्ट विंट ने टावर निर्माण के लिए बिजलीघर के भवन को चुना, लेकिन कुछ अधिकारियों ने विरोध कर दिया। इस पर वहां का निर्माण टालकर 1925 में कोतवाली का क्लाक टावर बनाया गया। 17 जुलाई, 1929 को इसका शुभारंभ कर दिया गया।

इसकी शुरुआत 1932 में 

केवल दो साल के अंतराल के बाद ही अंग्रेज अफसरों ने फिर घंटाघर बनवाने की दिशा में कदम बढ़ाए। इस बार वर्ष 1931 में कानपुर इलेक्ट्रिसिटी कारपोरेशन की इमारत (अब पीपीएन मार्केट बिजलीघर) में शहर का चौथा घंटाघर बनाया गया। पहले विरोध में आए इलेक्ट्रिसिटी कारपोरेशन के अधिकारियों को मनाने के बाद यह हो सका। इस घंटाघर के निर्माण में 80 हजार रुपये का खर्च आया था। इसकी शुरुआत 1932 में हो गई थी।

अब भी कमला टावर के रूप में मौजूद

फीलखाना स्थित शहर के पांचवें घंटाघर का निर्माण किसी अंग्रेज ने नहीं, बल्कि भारतीय उद्यमी समूह ने कराया था। यह दिलचस्प इतिहास अब भी कमला टावर के रूप में मौजूद है। वर्ष 1934 में जेके उद्योग समूह के मालिक लाला कमलापत सिंहानिया ने अपने समूह के मुख्यालय पर इस टावर का निर्माण कराया था। बताते हैं, कमलापत सिंहानिया ने इस टावर की घड़ी को मात्र एक दिन की कमाई से ही स्थापित करा दिया था।

इसके निर्माण की शुरुआत वर्ष 1932 में

तब के कलक्टरगंज और घंटाघर निर्मित होने के बाद इसी नाम से पहचाना जा रहा घंटाघर चौराहा के टावर की संख्या शहर स्तर पर छठवीं थी। इसके निर्माण की शुरुआत वर्ष 1932 में हुई थी। इसकी बनावट के कारण यह दिल्ली की कुतुब मीनार जैसा दिखता है। इससे पहले निर्मित सभी घंटाघर किसी न किसी भवन में ही बनाए गए, लेकिन यह एकमात्र ऐसा क्लाक टावर है, जो अलग बना हुआ है। इसका निर्माण पांच लाख रुपये की लागत से अंग्रेज जार्ज टी बुम ने कराया था, जो तीन साल बाद 1935 में शुरू हो सका था।

घंटाघर का निर्माण वर्ष 1946 में

जब देश की स्वाधीनता को लेकर वीर बलिदानी अंग्रेजों के विरुद्ध तनकर खड़े थे। आंदोलन की धार तेज ही होती जा रही थी। उसी दौरान स्वरूप नगर बाजार में शहर के सातवें और अंतिम घंटाघर का निर्माण वर्ष 1946 में शुरू हुआ। इस टावर में घड़ी तो बन गई, लेकिन सुइयां नहीं लग पाईं। इसकी वजह आजादी की लड़ाई के दौरान कई बार इसका काम रुकना रहा। इसका निर्माण लार्ड विलियम ने कराया था। घंटाघर में अब भी अंग्रेजों के जमाने की घड़ी लगी हुई है, लेकिन अब वह समय नहीं बताती।

वर्ष 1896 में कराया गया निर्माण 

अनवरगंज रेलवे स्टेशन के भवन का निर्माण वर्ष 1896 में कराया गया था। उसी समय यहां पर घड़ी भी लगाई गई थी। 126 साल पुरानी घड़ी का स्थान अब भी स्टेशन पहुंचने पर सामने ही दिखता है। वर्ष 2018 में यह घड़ी खराब होने पर इसे ठीक कराने के लिए भेजा गया। टेलीकाम विभाग के लोगों से फिर घड़ी के बारे में पूछा गया तो अब तक पता नहीं चला।

 

Tags: British GovernmentkanpurKanpur's Clock Tower
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