Chandrashekhar Azad Protest: उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हुए बवाल के बाद आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और नगीना से सांसद चंद्रशेखर आज़ाद उर्फ ‘रावण’ अपने ही कार्यकर्ताओं से पल्ला झाड़ते नज़र आए। हिंसा के तुरंत बाद जब मीडिया ने उनसे सवाल किए तो उन्होंने न सिर्फ भीम आर्मी के झंडेवालों को अपना समर्थक मानने से इनकार कर दिया बल्कि उल्टे मीडिया और प्रशासन पर ही आरोप मढ़ दिए। चंद्रशेखर ने कहा कि कोई भी नीला पटका पहन सकता है, इससे वह हमारा कार्यकर्ता नहीं हो जाता। सवाल उठता है कि क्या अपने ही सिपाहियों को रावण ने मौके पर छोड़ दिया? क्या अपनी सियासत बचाने के लिए उन्होंने अपने संघर्षरत कार्यकर्ताओं की बलि चढ़ा दी?
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प्रयागराज हिंसा में चंद्रशेखर ने बदल लिया पैंतरा
प्रयागराज के करछना में भीम आर्मी समर्थकों ने गाड़ियों में आगजनी और पुलिस पर हमले किए। इस बवाल में कई पुलिसकर्मी और स्थानीय लोग घायल हो गए। लेकिन जब सवाल Chandrashekhar Azad से पूछा गया तो उन्होंने भीड़ में शामिल लोगों को अपना समर्थक मानने से ही इंकार कर दिया। उन्होंने कहा, “कोई भी नीला गमछा पहन सकता है। इससे वह भीम आर्मी का कार्यकर्ता नहीं हो जाता।”
‘हमारे नहीं थे वो लोग’ – चंद्रशेखर आज़ाद का यू-टर्न
Chandrashekhar Azad ने मीडिया से कहा कि आप किस आधार पर मान रहे हैं कि उपद्रवी हमारे ही कार्यकर्ता थे? उन्होंने मीडिया पर जातिवादी मानसिकता का आरोप लगाते हुए कहा कि मीडिया पहले ही कमजोर वर्ग को आरोपी साबित कर देती है। सवाल यह है कि जिन लोगों ने रावण के लिए लड़ाई लड़ी, उन्हीं को रावण ने किनारे कर दिया?
सियासी दबाव में छोड़े अपने सिपाही?
हिंसा के बाद Chandrashekhar Azad ने लगातार खुद को घटनास्थल से दूर बताया और अपने समर्थकों के समर्थन से भी कन्नी काटते दिखे। क्या यह प्रशासनिक दबाव था या अपनी सियासी जमीन बचाने की चाल? यह पहली बार नहीं है जब चंद्रशेखर आज़ाद ने आंदोलन की चेतावनी दी हो, लेकिन जब आग भड़कती है तो वह अपने ही साथियों से पीछे हट जाते हैं।
न्याय की लड़ाई या सियासी नाटक?
Chandrashekhar Azad प्रयागराज में रेप पीड़िता और करछना में दलित युवक देवी शंकर के परिवार से मिलने जा रहे थे, लेकिन पुलिस ने उन्हें रोक लिया। इसके बाद हिंसा भड़की। आज़ाद ने दावा किया कि वह पीड़ितों के लिए न्याय मांग रहे थे, लेकिन जब उनके समर्थक सड़कों पर उतरे तो उन्होंने अपना दामन झाड़ लिया। क्या यह वास्तव में सामाजिक न्याय की लड़ाई थी या फिर एक सियासी स्टंट?
प्रयागराज बवाल ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या चंद्रशेखर आज़ाद अपने साथ खड़े लोगों के साथ भी खड़े रहते हैं? या फिर जब वक्त मुश्किल होता है तो वह भी अपने ‘सिपाहियों’ को राजनीतिक मोहरे की तरह छोड़ देते हैं? जनता अब इस सवाल का जवाब मांग रही है।