कानपुर। उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर को धार्मिक, आर्थिक और क्रांतिकारियों का शहर कहा जाता है। यहां पर सैकड़ों वर्ष प्राचीन देवस्थल हैं, जिसका जिक्र पुराणों में भी मिलता है। एक ऐसा ही शिवालय कानपुर देहात के बनीपारा गांव में है, जिसे बाणेश्वर शिव मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर में विराजमान शिवलिंग पर सतयुग से एक राजकुमारी सुबह के चार बजे सबसे पहले फूल चढ़ाती है और विधि-विधान से पूजा-अर्चना करने के बाद अदृश्य हो जाती है। आज तक किसी ने भी राजकुमारी को नहीं देखा। सुबह जब मंदिर के कपाट खोले जाते हैं तब शिवलिंग पर ताजे फूल और बेलपत्र चढ़े मिलते हैं।
बनीपारा गांव में विराजमान हैं बाणेश्वर
कानपुर देहात के बनीपारा गांव में करीब 37 लाख वर्ष प्राचीन शिवमंदिर है, जिसे बाणेश्वर के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि यह मंदिर महाभारतकालीन है। मंदिर के पुजारी चतुर्भुज त्रिपाठी बताते हैं कि ये मंदिर महाभारत काल से इस गांव में है और प्रलय काल तक रहेगा। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि सावन-शिवरात्रि पर लाखों भक्त आते हैं और बाणेश्वर बाबा के दर पर माथा टेकते हैं और मन्नत मांगते हैं। पुजारी बताते है कि आज भी मंदिर के जब कपाट खोले जाते हैं तो शिवलिंग में ताजे फूल-बेलपत्र चढ़े मिलते हैं। आज तक उस अदृश्य राजकुमारी को किसी ने नहीं देखा।
भगवान शिव की भक्त थीं उषा
मंदिर के पुजारी बताते हैं कि, राजा बाणेश्वर की बेटी ऊषा भगवान महादेव की अनन्य भक्त थी। उनकी पूजा करने वह इतनी तल्लीन हो जाती थी कि अपना सब कुछ भूलकर आधी-आधी रात तक दासियों के साथ शिव का जाप करती थी। बेटी की भक्ति को देखकर राजा शिवलिंग को महल में ही लाना चाहते थे ताकि उनकी बेटी को जगंल में न जाना पड़े और उसकी पूजा आराधना महल में ही चलती रहे। राजा बाणेश्वर ने इसके लिए घोर तपस्या की। राजा की तपस्या से प्रसन्न होकर भोलेशंकर ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा।
शिवलिंग को जमीन पर रखना पड़ा
मंदिर के पुजारी आगे बताते हैं कि भगवान शिव की बात सुनकर राजा ने उनसे अपने महल में ही प्रतिष्ठित होने की प्रार्थना की। भगवान ने उनकी इस इच्छा को पूर्ण करते हुए अपना एक लिंग स्वरूप उन्हें दिया, किन्तु शर्त रखी कि जिस जगह वह इस शिवलिंग को रखेंगे, वह उसी जगह स्थापित हो जाएगा। शिवलिंग पाकर प्रसन्न राजा बाणेश्वर तुरंत अपने राजमहल की ओर चल पड़े। रास्ते में ही राजा को लघुशंका के लिए रुकना पड़ा। उन्हें जंगल में एक आदमी आता दिखाई दिया। राजा ने उसे शिवलिंग पकड़ने के लिए कहा और जमीन पर न रखने की बात कहीं। उस आदमी ने शिवलिंग पकड़ तो लिया, लेकिन वह इतना भारी हो गया कि उसे शिवलिंग को जमीन पर रखना पड़ा।
आज भी बाणेश्वर के नाम से मशहूर
मंदिर के पुजारी आगे बताते हैं, जब राजा बाणेश्वर वहां पहुंचे तो नजारा देख हैरान रह गए। उन्होंने शिवलिंग को कई बार उठाने की कोशिश की, लेकिन वह अपनी जगह से नहीं हिला। अंततः राजा को हार माननी पड़ी और वहीं पर मंदिर का निर्माण कराना पड़ा, जो आज भी बाणेश्वर के नाम से मशहूर है। पुजारी बताते हैं कि मंदिर के बारे में मान्यता है कि सदियों से भोर के समय शिवलिंग पर 11 पुष्प, चावल और जल खुद-ब-खुद चढ़ जाता है। करीब 37 लाख वर्ष से अधिक पहले सतयुग में राजा बाणेश्वर की बेटी उषा यहां सबसे पहले पूजा करती थीं और आज भी वह ही सुबह पहर आकर शिव की अराधना करती हैं।
मेले की पुष्टि राजस्व अभिलेख में दर्ज
ग्रामीण बताते हैं कि कांवड़िए सबसे पहले लोधेश्वर और खेरेश्वर मंदिर में गंगाजल अर्पित करते हैं। इसके बाद बाणेश्वर मंदिर में जल चढ़ाकर अनुष्ठान को पूरा करते हैं। गांववालों की आस्था है कि सावन के सोमवार का व्रत रखने से सभी मुरादें पूरी होती हैं। नागपंचमी के दिन यहां एक बड़े मेले का आयोजन होता है, जिसमें देशभर के कांवाड़ियों की भीड़ जुटती है। पुजारी बताते हैं, यह एक बहुत प्राचीन मंदिर है और हर शिवरात्रि पर यहां पर 15 दिन का विशाल मेला का आयोजन होता है, जिस मेले को लेकर लाखों लोग दूर-दूर से आते हैं। इस मेले की पुष्टि राजस्व अभिलेख भी करते हैं जिसमें या मेला दर्ज है।